बौद्ध भिक्षु नागसेन और मिलिंद के बीच संवाद

एक भिक्षु हुआ नाग सेन उसे एक दिन सम्राट मिलिन्‍द ने निमंत्रण दिया था कि तुम आओ दरबार में । जो राजदूत गया था निमंत्रण देने , उसने नाग सेन को कहा कि भिक्षु नाग सेन , आपको बुलाया है सम्राट मिलिन्‍द ने । मैं निमंत्रण देने आया हूं । तो नाग सेन कहने लगा , मैं चलूंगा जरूर ; लेकिन एक बात विनय कर दूँ ; पहले ही कह दूँ कि भिक्षु नाग सेन जैसा कोई है नहीं । यह केवल एक नाम है , कामचलाऊ नाम । आप कहते है तो मैं चलूंगा जरूर , लेकिन ऐसा कोई आदमी कहीं है नहीं ।

राजदूत ने जाकर सम्राट को कहा की बड़ा अजीब आदमी है वह । वह कहने लगा कि मैं चलूंगा जरूर , लेकिन ध्‍यान रहे कि भिक्षु नाग सेन जैसा कहीं कोई है नहीं , यह केवल एक कामचलाऊ नाम है । सम्राट ने कहा , अजीब सी बात है , जब वह कहता है , मैं चलूंगा । आयेगा वह । वह आया भी रथ पर बैठकर । सम्राट ने द्वार पर स्‍वागत किया और कहा भिक्षु नाग सेन , हम स्‍वागत करते है आपका । वह हंसने लगा । उसने कहा , स्‍वागत स्‍वीकार करता हूं । लेकिन स्‍मरण रहे भिक्षु नाग सेन जैसा कोई आदमी नहीं है ।

सम्राट कहने लगा बड़ी अजीब पहली है । आगर आप-आप नहीं है तो कौन है ? कौन आया है इस रथ पर बैठ कर , कौन स्‍वागत स्‍वीकार रहा है , कौन दे रहा है उत्‍तर ?

नाग सेन मुड़ा और उसने कहा , देखते है , सम्राट मिलिन्‍द , यह रथ खड़ा है जिस पर मैं बैठ कर आय हूं । सम्राट ने कहां , हाँ यह रथ है । तो भिक्षु ने कहां की घोड़ों को निकला कर अलग कर दिया जाये , घोड़े अलग कर दिये , तब भिक्षु नाग सेन ने सम्राट से पूछा की क्‍या ये घोड़ रथ है ?

सम्राट ने कहां , घोड़े रथ कैसे हो सकते है ? घोड़े अलग कर दिये गये , सामने के डंडे जिनसे घोड़े बंधे थे , खिंचवा लिए गये ।

उसने पूछा क्‍या ये रथ है ?

सिर्फ दो डंडे रथ कैसे हो सकते है ? डंडे अलग कर दिये गये , चाक निकलवा दिये गये , और एक-एक अंग रथ का निकलता चला गया । और एक-एक अंग पर सम्राट को कहना पडा कि नहीं , ये रथ नहीं है । फिर आखिर पीछे शून्‍य बच गया , वहां कुछ भी नहीं बचा ।

भिक्षु नाग सेन पूछने लगा , रथ कहां है अब ? रथ कहा है अब , और जितनी चीजें मैंने निकालीं , तुमने कहा ये भी रथ नहीं , ये भी रथ नहीं , ये रथ गया कहां , अब ये रथ कहां है ?

तो सम्राट चौक कर खड़ा हो गया—रथ एक जोड़ था । रथ कुछ चीजों का संग्रह-मात्र था । रथ का अपना होना नही है , कोई ‘’ ईगो " नहीं है । रथ एक जोड़ है ।

आप खोजें कहां है आपका ‘’ मैं " और आप पायेंगे कि अनंत शक्‍तियों के एक जोड़ है ; मैं कहीं भी नहीं है । और एक-एक अंग आप सोचते चले जायें तो एक-एक अंग समाप्‍त होता चला जाता है , फिर पीछे शून्‍य रह जाता है । उसी शून्‍य से प्रेम का जन्‍म होता है । क्‍योंकि वह शून्‍य आप नहीं है वह शून्‍य परमात्‍मा है ।

~ ओशो

No comments:

Post a Comment